Sunday, January 26, 2014

Datia Ka Madhy Kaleen Itihas

                      दतिया का मध्यकालीन इतिहास

                                                                                                                 -सोम त्रिपाठी
विषय प्रवेश- 
जो विगत है वही भविष्य को सलाह देने का अधिकारी होता है। इसलिए उसके निष्कर्षों पर व्यक्तिगत पक्षपात और पूर्व कल्पित मतों का प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। प्रमाणों  की साक्षी से जो परिणाम निकले उसी को अपरिहार्य जानकार स्वीकार करना चाहिए और घटनाओं के आधार पर विगत का जो रूप खड़ा हो, उसे सर माथे पर रखना चाहिए। वह चित्र उसकी रुचि  के अनुकूल हो या न हो, उसे अच्छा लगे या बुरा, उसके जातीय गर्व को उससे संतोष मिले या ठेस लगे, हर हाल में वह जैसा है वैसा ही उसे लिखना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

सन १६५५ में फ्रांकोइस बेर्नियर भारत आया था। उसने मुग़ल तथा उसके आधीन राज्यों के बारे में लिखा है-There are sundry nations which the Mogul is not full master of them still retaining their particular sovereigns and lords that neither obey him nor pay him tribute but from constraint: many do little. some that do nothing at all, and some also that received tribute from him.......Of the like sort are more than an hundred rajas....who are so great and powerful that if they three along should combine they would hold him (i.e. the Great moghul)- Francois Bernier: An Account of India and the Great Moghul, 1655 CE मुगलों से उलटा राज्य कर लेने वालों में गंगा से बंगाल की ओर बसे अफगान शासक थे। राज्य कर न देने वाले राज्यों में राजस्थान के राणा सहित कई अन्य राजा तथा बुंदेलखंड के बुंदेला भी थे।

दतिया का  इतिहास  वीरसिंह देव के शासनकाल से प्रारम्भ होता है।  वीरसिंह देव बुंदेला ने सन १६१८ में प्रतापगढ़ का निर्माण कराया था, जिसमें  पुराने महल से लेकर भरतगढ़ तक की अनेकों भव्य इमारतें  शामिल  थीं। उसके परकोटे  के अवशेष आज भी दतिया नगर के बीचों-बीच मौजूद हैं। इसके अलावा क़िले के बाहर कई तालाब तथा कई भवनों का निर्माण कराया। इन सबके  के निर्माण के लिए हजारों की संख्या में मजदूर, कारीगर, इंजीनियर, चित्रकार अस्थाई रूप से क़िले में  बस गए थे। उनकी आवश्यकताओं  की पूर्ती के लिए यहाँ बाजार लगाने लगा था जिसे कटरा कहते थे। अब्दुल हमीद  लाहौरी के  बादशाहनामा में  एक हाथ का बना चित्र शामिल है। यह चित्र उस समय का है जब शाहजहां बुंदेलखंड में आया था।  उसकी पृष्ठ भूमि में एक क़िला दर्शाया गया है,वह क़िला प्रतापगढ़ ही  है। चित्र के शीर्षक में ओरछा लिखा है, लेकिन वह  ओरछा के क़िले से बिलकुल नहीं मिलता, इसके विपरीत  दतिया नगर में पुराने क़िले के जो भवन और अवशेष हैं वह  उनसे मिलता  है। वीरसिंह देव की मृत्यु सन १६२७ में हो गयी। उनकी मृत्यु के  कारण सारा  निर्माण कार्य रुक  गया। पुराने महल का मुख्य द्वार, सामने के कोने की दो मीनारें, तथा भित्ति चित्र कुछ ही कमरों में हो पाये शेष अधूरे रह गए।  आसपास की कुछ इमारतें भी अधूरी रह गईं। बाद में घटनाक्रम कुछ इस तरह घटा कि  बचाखुचा निर्माणकार्य पूरा  नहीं हो पाया। निर्माण कार्य में लगे मजदूर, कारीगर, इंजीनियर,चित्रकार आदि जो किले में अस्थाई रूप से रह रहे थे, स्थाई  रूप से बस गए।  आज भी उनके वंशज भीं बसे हुये हैं और उनके नाम से गलीं, मोहल्ले मौजूद हैं जैसे कमनीगर की गली, बेलदारों का मुहल्ला, भटियारा पुरा आदि ।

वीरसिंह देव के बाद जुझारसिंह  ओरछा की गद्दी पर बैठा। इसके कुछ  समय बाद मुग़ल बादशाह जहांगीर का निधन हो गया। शाहजहां ने गद्दी  पर बैठते ही बुंदेलखंड पर दो आक्रमण किये।  पहला आक्रमण १६२८ में हुआ, जिसमें करैरा का परगना बुंदेलों के हाथ से निकल गया। दूसरा आक्रमण सन १६३५ में हुआ  जिसमें जुझारसिंह अपने परिवार सहित मारा गया और ओरछा पर शाहजहाँ का कब्जा हो गया। उसने सिंध नदी से लगा हुआ भाग  ओरछा से अलग कर मुग़ल सम्पत्ति घोषित कर  दिया, जिसमें बड़ौनी, कटरा (प्रतापगढ़ का क़िला) तथा भाण्डेर शामिल था। उसने कटरा  का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया तथा  इसमें एरच, भाण्डेर तथा नरवर का इलाका मिला कर इसे आगरा सूबा के अंतर्गत सरकार (संभाग) का दर्जा दे कर  बाक़ी खान को इसका फौजदार नियुक्त कर दिया। झाँसी का गवर्नर राजा विठ्ठलदास गौर के छोटे भाई गिरधरदास को बनाया। सन १६३६ में चम्पतराव ने ओरछा पर अधिकार कर लिया, ऐसी स्थिति में कटरा असुरक्षित हो गया तब  अब्दुल्ला खां फिरोज़जंग को दीवान, बहादुर खान रुहेला को किलेदार नियुक्त कर बाक़ी खान को फौजदार यथावत  बनाऐ रखा । ( इन तीनों  के वंशज आज भी दतिया में  निवास करते हैं।) अब्दुल्ला खां चम्पतराय के आक्रमण को रोक  नहीं सका, इसीलिये शाहजहाँ ने सन १६३९ में उसे हटाकर बहादुर खान रुहेला को दीवान बनाया ।  लेकिन बाद में बुंदेलखंड  से सरोकार रखने वालों ने बादशाह को इस बात से सहमत कर लिया कि  बुंदेलखंड को रुहेलखण्ड में बदलना उचित नहीं है। बादशाह ने उनकी सलाह मान कर बहादुर खान रुहेला को हटा  कर भगवानदास बुंदेला को दीवान नियुक्त कर दिया।

सन १६४० में चम्पत राय के आक्रमण के दौरान एक राजपूत ने भगवान दास बुंदेला का  क़त्ल कर दिया। उस समय औरंगज़ेब दक्षिण का सूबेदार था, उसने विपरीत परिस्थितियाँ देखकर भगवानदास के  अल्पवयस्क लडके शुभकरण को अपने पास दक्षिण में बुलवा लिया तथा अगली व्यवस्था होने तक के लिए इस्लामाबाद का प्रभार ओरछा के  राजा पहाड़ सिंह को सौंप दिया। वयस्क होने पर  सन  १६५६ में शुभकरण को इस्लामाबाद का दीवान नियुक्त किया गया। १६८३ में शुभकरण की मृत्यु के बाद उनका लड़का दलपतराव दीवान बना।  १६८६ में मराठों से हुए युद्ध में विजय प्राप्त करने पर उन्हें राव की उपाधि और इस्लामाबाद की जागीर मिली। दलपतराव ने इस्लामाबाद  नाम को कभी स्वीकार  नहीं किया था।  वे अपनी सनदों में इस्लामाबाद की जगह भांडेर का नाम का उल्लेख  करता था । जागीर मिल जाने के बाद उसने इस्लामाबाद का नाम बदलकर  दलीप नगर रख दिया जो उनका ही नाम था।

१९ जुलाई १७०७ में जाजऊ के युद्ध में उनकी मृत्यु हो गयी।  उनकी मृत्यु के बाद रामचन्द्र, उसके बाद सन १७३६ में  इंद्रजीत दलीपनगर के जागीरदार हुआ।   इंद्रजीत के समय में मुग़ल साम्राज्य लगभग समाप्त को चुका था।  मुग़ल बादशाह शाह आलम, जिसका राज्य लाल क़िले से पालम तक था, उसको  नजराना देकर इंद्रजीत ने राजा की उपाधि प्राप्त की। तबसे  वह और उनके उत्तराधिकारी  राजा कहलाने लगे। इन्द्रजीत  के शासनकाल में मराठों के आक्रमण होने लगे थे। उन्होंने और उनके बाद उनके पुत्र  शत्रुजीत ने दलीपनगर का अस्तित्व बनाये रखा। सन १८०१ में पारीछत राजा हुए उन्होंने १५ मार्च १८०४ में अंग्रेजों से सन्धि कर  अंग्रेजी  राज्य की शुरुआत की।

सन  १८८१ में इम्पीरियर गज़ेटियर ऑफ़ इंडिया के प्रकाशन के लिए विलियम इरविन को देशी  राज्यों के इतिहास की जानकारी प्राप्त करने के लिए नियुक्त किया। उसे जो जानकारी दी गयी वह उसने गज़ेटियर में शामिल  किया । उसने गज़ेटियर में सबसे पहले  दतिया का उल्लेख किया तब से शासकीय रिकार्ड में दिलीपनगर कि जगह दतिया का प्रयोग होने लगा। बाद में इम्पीरियर गजेटियर के आधार पर दतिया स्टेट गजेटियर बना जिसमें  दतिया के इतिहास का वर्णन  है।  उसी के आधार पर अन्य इतिहासकारों ने दतिया के इतिहास की रचना की जो वर्तमान में प्रचलित है। उसके अनुसार वीरसिंह देव ने सन १६२६ में अपने लड़के भगवान राव  को बडौनी तथा दतिया का राज्य दिया था, तब से वह और उसके बाद उनके  उत्तराधिकारी दतिया पर राज्य कर रहे हैं। इसके विपरीत ओरछा गजेटियर के अनुसार सन १६३५ में दतिया ओरछा से अलग हुआ था। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि  सन १६३५ में शाहजहाँ ने ओरछा पर आक्रमण कर दतिया को ओरछा से अलग कर दिया था। तमाम इतिहासिक तत्थ्य तथा स्थल   साक्ष्य ओरछा गजेटियर का समर्थन करते  हैं, दतिया गजेटियर का नहीं। इसी आधार पर मैंने दतिया का इतिहास लिखा है।

कुछ भ्रांतियां और भूलें -

बुंदेलखंड का इतिहास मुख्य रूप से मुग़ल इतिहासकारों द्वारा लिखीं गयी फारसी किताबों के आधार पर लिखा गया है।  केसवकृत वीरचरित्र, लाल कवि कृत छत्रप्रकाश आदि स्थानीय लेखकों की पुस्तकों के अलावा स्थल साक्ष्यों का भी महत्वपूर्ण योगदान है, किन्तु इतिहास में उनको बहुत कम  महत्त्व दिया गया है। अधिकांश मुग़ल इतिहासकार वेतन भोगी थे।  मुगलों की शान के खिलाफ न लिखने की मजबूरी के कारण उनका सारा लेखन एकतरफा था। इसके अलावा उन्हें बुंदेलखंड के बारे मे न के बराबर जानकारी थी, इसीलिये उनके  वर्णन में कई भ्रांतियां और भूलें हुई हैं। उदाहरण के लिए अब्दुल हमीद लाहौरी ने बादशाहनामा में गड़ा के राजा प्रेमनारायण की जगह भीमनारायण, जुझारसिंह की बड़ी रानी पार्वती बाई जिनका प्रचिलित नाम चम्पावती था को वीरसिह देव की रानी, वीरसिंह देव को नरसिंह देव आदि कई नामों की भूलें की हैं। इसीतरह सन १६३५ में बुंदेलखंड पर जो आक्रमण हुआ था, वह जिस मार्ग से हुआ और जहां हुआ वे सब प्रतापगढ़ (दतिया) और उसके भवनों पर हुआ जिसका उसने विस्तृत वर्णन किया है।  परन्तु उसने प्रतापगढ़ की जगह ओरछा लिख दिया,  इन गलतियों के कारण इतिहास का स्वरूप ही बदल गया।इसके अतिरिक्त समयकाल के कारण कुछ स्थानों के नाम बदल गए जो इतिहास का स्वरूप बदलने का कारण रहे हैं -

कटरा- कटरा के बारे में मासीर-उल-उमरा भाग १ पृ० ३८१ पर विस्तृत जानकारी दी गयी है। उसके अनुसार कटरा ओरछा का एक परगना था जिसमें ९३० गाँव थे और उससे ८ लाख का राजस्व प्राप्त होता था।  जुझारसिंह  के पतन के बाद मुगलों ने उसे खालसा घोषित कर उसका नाम इस्लामाबाद रख दिया। कटरा एक फारसी शब्द है जिसका अर्थ बाज़ार है।  दतिया के बाज़ार में स्थित हनुमान जी के मंदिर को आज भी "कटरा के हनुमान" कहते हैं। मुगलकाल में प्रतापगढ़ कि जगह कटरा नाम प्रचलन में था। बाद में शाहजहाँ ने कटरा का  नाम बदल कर इस्लामाबाद रखा तो इसे किसी ने स्वीकार नहीं किया , यह केवल मुगल रिकॉर्डो तक ही सीमित रहा। विलियम इरविन ने अपनी किताब " later mughals vol.1 p. 216-222 में बुंदेलखंड की भौगोलिक स्थिति का विस्तृत वर्णन किया है,  उसमें  कटरा  या इस्लामाबाद का भी उल्लेख है,  पर वह कहां है? इस पर वह मौन रहा, पर उसने मंसूर अहमद के कथन का सन्दर्भ जरूर दिया जिसके अनुसार कथेरा  के पास स्थित  खंडहरों को अभी भी सलीमाबाद कहा जाता है, जो सम्भवता: इसे निर्दिष्ट करता है। मंसूर अहमद की यह सम्भावना पूरी तरह गलत है क्योंकि  कथेरा या कटरा ओरछा के पूरव दिशा मेँ है जब कि शाहज़हां ने सिंध नदी से लगे हुए उत्तरी-पश्चिमी भूभाग को मुगल सम्पत्ति घोषित  कर वहाँ  स्थित कटरा को इस्लामाबाद बनाया था, जो वर्तमान दतिया है। 
भाण्डेर- ग्वालियर स्टेट गजेटियर के अनुसार सन ११०४ ई० का एक लिखा प्राप्त हुआ है उसमे ३२ राजाओं की एक सूची दी हुई है जिन्होँने पूर्व में  राज्य किया था। इस सूची में १७ राजाओं का विस्तृत वर्णन है उनमें भाण्डेरपाल का नाम है जिसने भाण्डेर बसाकर वहां एक झील व एक क़िले  क निर्माण  कराया था। अकबर के शासनकाल में यह आगरा सूबा के अन्तर्गत  एरच सरकार (संभाग) का एक महाल (जिला) था, जिसका प्रशासक हसन खान पठान और एक कायस्थ था। आईंन-ए-अकबरी में यहां का रकवा, राजस्व, सेना आदि की विस्तृत जानकारी दी हुई है।  हसन खान यहाँ का एक लोकप्रिय प्रशासक था उसके नाम पर एक गाँव हसनपुरा है। सन १५९८ में वीरसिंह  देव बुंदेला ने हसन ख़ान को भागकर भाण्डेर पर कब्जा कर लिया था। इसतरह भाण्डेर कभी मुगलों कभी बुंदेलों तो कभी जाटों तथा कभी मराठों के कब्जे में  रहा। भाण्डेर के दो भाग थे-क़िला ओर छावनी। सन १६०२ के बाद जब भाण्डेर बीरान हो गया था  तब ओरछा के राजा रामशाह के लडक़े संग्रामशाह ने भाण्डेर पर कब्जा कर लिया था। समझौते के लिए संग्रामशाह ने छावनी वीरसिंह  देव को भेँट करने का प्रस्ताव रखा परन्तु वीरसिंह देव ने छावनी की जगह किला लेने की शर्त रख दी -
सूनो जानि भांडेर मुकाम।  बैठ आई साहि संग्राम।।
एही समय प्रीति अति नईं। वीरसिंघ संग्रामे भाई। .
तब संग्रामसहि हिय हेरीं। वीरसिंघ को दई भाँडेरी।
वीरसिंघ संग्रामहि एन। कह्यो चबूतर ले गढ़ देंन। -केसवकृत वीरचरित पृ० ५११

सन  १८०३ में भाण्डेर जाटों के कब्जे में था। अंग्रेजो ने गोहद के जाटों को धोलपुर स्थानांतरित कर दिया तब संधि  के आधार पर  गोहद का इलाका सिंधिया को मिला तथा भाण्डेर का इलाका पुन: दतिया को मिल गया। उस समय भाण्डेर  की बस्ती असुरक्षित होने के काऱण किले में  बस गईं और  गाँव वेचिराग हो गया। धीरे-धीरे भाण्डेर का नाम भी लोप हो गया ओर किले का नाम इंदरगढ़ हो गया । लेकिन आज भी इंडियन मैप सर्विस, जोधपुर द्वारा प्रकाशित मध्य प्रदेश टूरिस्ट रोड एटलस मेँ भाण्डेर इंदरगढ़ से चार कि.मी. उत्तर में दर्शाया गया है। आज  दतिया जिले की तहसील भाण्डेर का पूर्व नाम भद्रावती था, धीरे-धीरे वह भड़ोल तथा बाद मेँ  भाण्डेर में  बदल गया।
दतिया -दतिया का संबन्ध दंतरवक्रेश्वर से जोड़ा जाता है। किवदन्ती है की माड़िया के महादेव उसने स्थापित कराये थे। लेकिन जहां तक मंदिर के शिल्प का प्रश्न है, वह मुगलकालीन है।  वीरसिंह देव  के समय यहां कोई बस्ती नहीं थी  जंगल था तथा  पूर्व दिशा से  दक्षिण होती हुई पश्चिम की और असनईं नदी बहती थीं। उत्तर पश्चिम दिशा पहाड़ ओर जंगल से घिरा होने के कारण सैनिक दृष्टि से एक सुरक्षित्त स्थान था।  ओरछा के राजा भारतीचन्द (१५३१-१५५४) ने अपने छोटे भाई  दुर्गादास को दुर्गापुर की जागीर दी थी जो यहां से मात्र दो कि. मी. दूर है। लेकिन केसवदास के  वीरचरित्र में  दांतिया का नाम ६ बार आया है, इससे सिद्ध होता है कि पुरानी दतिया कहीं आस-पास बसी हुई थी जहां अबुल फजल को मारने के बाद वीरसिंह देव ने शरण ली थी। सन १६३५ में मुग़ल आक्रमण के बाद भगवानराव ने ग्राम सिरोल को अपना निवास बनाया था तब उसने सिरोल का नाम दतिया रख दिया। लगता है कि जुझारसिंह ने मुगलों से युद्ध करने के लिये कुम्हेड़ी के पास जिस स्थान पर अपनी सैनिक छावनी बनाई थी, वह दतिया था, जिसे जुझारसिंह ने बदल कर अपने नाम पर जुझारपुर रख दिया।
सन १६३५ का मुग़ल आक्रमण ओरछा पर नहीं अपितु दतिया पर हुआ
सन १६३५ में अब्दुल हमीद लाहौरी शाहजहाँ के साथ यहाँ आया था, उसे यहॉं के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी।  उस समय वीरसिंह देव का क़िला प्रतापगढ़ लगभग पूरा हो गया था लेकिन क़िले का नाम और स्थान का नाम प्रसिद्ध नहीं हो पाया था। शायद भूल से उसने वर्तमान दतिया का नाम बादशाहनामा में ओरछा लिख दिया।  लेकिन महल, इमारतों, तालाबों, नदियों, पहाडियों, आसपास के गाँव का वर्णन वर्तमान दांतिया का ही किया तथा मुगल सेना के कूच करने का मार्ग यहीं का है। इसीलिये जदुनाथ सरकार ने औरछा के साथ दतिया के   नाम का भी उल्लेख किया है। जबकि फ़ारसी के किसी भी ग्रन्थ में दतिया के  नाम का कहीं भी नहीं मिलता। इससे सिद्ध होता है कि ओरछा पर कोई आक्रामण नहीं हुआ और न ही शाहजहाँ वहां गया।
तिथियाँ- यूके में जूलियन कैलेंडर की अन्तिम तारीख बुद्धवार २ सितम्बर १७५२ है। उसके दूसरे दिन संशोधित ग्रेगोरियन कैलेंडर १२ दिनों का लोप कर गुरूवार को १४ तारीख से शुरू हुआ। २ सितम्बर १७५२ के पूर्व का सारा इतिहास जूलियन कैलेंडर की तारीखों के अनुसार है और उसके बाद का १४ सितम्बर १७५२ से ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार है।१२ दिनों के लोप होने के कारण मध्य काल के इतिहास में सटीक तारीख प्राप्त करने में बडी परेशानी आती है।  कुछ वर्षों पहले शिवाजी महाराज की जन्मकुंडली मिली।  उस जन्मकुंडली का इतिहास दिये गये शिवाजी महाराज की जन्म की अँग्रेज़ी तारीख़ से मिलाया गया तो वह नहीं मिली। बाद में मालूम हुआ की इसका काऱण १२ दिनों के लोप होने का चक्कर है। इसके अलावा १७५२ के बाद ५० वर्षों तक कई इतिहाकार जूलियन केलिन्डर का ही प्रयोग करते रहे जिसके  कारण यह अन्तर १० दिनों से लेकर १५ दिनों तक का मिलता है। वैसे देखा जाए तो भारत के मध्यकाल के   इतिहास में जूलियन क्लेंडेर का प्रयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है और न उसका कोई महत्त्व है। इतिहास के पुनर्लेखन के दौरान इस बात को ध्यान में  रखकर जूलियन केलिन्डर की जगह हिज़री और  फारसी कैलेंडरों की तारीखों को ग्रेगोरियन कैलेंडर  की तारीखों में परिवर्तित करना चाहिए। 
मैंने हिज़री और फारसी तारिखों को ग्रेगोरियन कैलेंडर की तारीखों में परिवर्तित किया है, और विवाद से बचने के लिये अंग्रेजी अनुवादकों ने जहां-जहाँ जूलियन तारीखें लिखी उन्हें कोष्टक में लिख दिया है।




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